भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में महात्मा गाँधी की भूमिका [THE ROLE OF MAHATMA GANDHI IN THE INDIAN FREEDOM MOVEMENT]

                             भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में महात्मा गाँधी की भूमिका

[THE ROLE OF MAHATMA GANDHI IN THE INDIAN FREEDOM MOVEMENT]


            भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के पश्‍चात्‍ भारत में राष्ट्रवाद फलने-फूलने लगा। इसी दौर में अंग्रेजी राज से उत्पन्न विरोधाभासों और सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों के फलस्वरूप राष्ट्रवाद के स्वरूप में भी परिवर्तन दिखायी देने लगे। 1885 से 1919 तक उदारवादी एवं उग्रवादी राजनीतिक विचारधाराओं ने भारत में राष्ट्रवाद की जो बुनियाद तैयार की उसे एक निश्चित स्वरूप और दिशा देने का कार्य महात्मा गांधी ने किया। उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन को बुद्धिजीवियों के हाथ से निकालकर उसे सही अर्थों में जन आन्दोलन बना दिया।

            महात्मा गांधी जिन्हें प्यार से लोग बापू और राष्ट्रपिता सम्बोधित करते हैंभारतीय राजनीतिक मंच पर 1919 से 1947 तक इस प्रकार छाए रहे कि इस युग को भारतीय इतिहास का गांधी-युग कहा जाता है। वे इस दृष्टि से विशिष्ट थे कि उन्होंने धर्म और राजनीतिरहस्यवाद और व्यवहारवादप्राचीन भारतीय दर्शन तथा अर्वाचीन पाश्चात्य दर्शन तथा उदार एवं उग्रवादी दोनों विचारधाराओं के उत्तम भाग का सम्मिश्रण किया। उनका यह महान योगदान है कि उन्होंने राज्य शास्त्र को आध्यात्मिक आधार तथा व्यावहारिक राजनीति को नये प्रयोगों और प्रणालियों से सुसज्जित कर समस्त मानव जाति को प्रभावित किया। वे राजनीति को सामाजिक परिवर्तन का साधन बनाना चाहते थे।

गांधीजी के नैतिक शस्त्र

            महात्मा गाँधी का जीवन सत्य और अहिंसा के महान आदर्शों पर आधारित था। ये दोनों आदर्श एक दूसरे के पूरक हैं। माना जाता है कि गांधीजी के अहिंसा और सत्याग्रह के विचारों को विकसित करने में इमर्सनथोरो और टालस्टाय का प्रभाव रहा। यद्यपि इसमें मौलिकता भी थी। गांधीजी के लिए सत्य का अर्थ था-सबके प्रति प्रेम और सेवा द्वारा आध्यात्मिक एकता को प्राप्त करना। वे कहते थे कि सत्य ही ईश्वर है और ईश्वर ही सत्य है। उनके जीवन का परम लक्ष्य सत्य की खोज करना था। उनका कहना था कि सत्य का प्रत्येक परिस्थिति में पालन किया जाना चाहिएचाहे उसका कोई भी मूल्य चुकाना पड़े। उनका विश्वास था कि सत्य की पूर्ति अहिंसा के द्वारा ही सम्भव है और अहिंसा का अर्थ है- मनवचन और कर्म द्वारा किसी को भी कष्ट न पहुँचाना। यह सर्वोच्च प्रेमसर्वोच्य दयालुता तथा सर्वोच्च आत्म बलिदान है। गांधीजी अहिंसा को सर्वाधिक शक्तिशाली अस्त्र मानते थे। यंग इण्डिया’ में उन्होंने लिखा था, ‘‘जिन ऋषियों ने हिंसा के बीच अहिंसा के सिद्धान्त को खोज निकालावे न्यूटन से अधिक प्रखर बुद्धि वाले लोग थेवे स्वयं वैलिंगटन से अधिक वीर योद्धा थे। स्वयं हथियारों का प्रयोग जानते हुए भी उन्होंने इसकी व्यर्थता को अनुभव किया और उन्होंने युद्ध से दुःखी संसार को बतलाया कि इसकी मुक्ति हिंसा द्वारा नहीं अपितु अहिंसा द्वारा ही है।’’

            गांधी जी की अहिंसा कायरों की अहिंसा या भीरुता नहीं थी। सत्य और अहिंसा के साथ-साथ गांधीजी साधनों की पवित्रता पर जोर देते थे। वे साधनों को साध्य के अनुरूप प्रयोग करने के हिमायती थे। उनका कहना था, ‘‘साधन एक बीज की तरह है और साध्य एक पेड़ है। साधन और साध्य में वही सम्बन्ध हैजो बीज और पेड़ में।’’ उनका विश्वास था कि साधनों की अनैतिकता निश्चित रूप से साध्य की नैतिकता को नष्ट कर देती है। उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि ‘‘हम जैसा बोयेंगे वैसा ही फल पायेंगे।’’ साधनों की पवित्रता का विचार उन्हें क्रान्तिकारी राष्ट्रवाद और माक्र्सवाद के अनुयायियों से पृथक करता हैजो साध्य प्राप्ति के लिए हिंसा और क्रान्ति-पथ को सही मानते हैं।

            सत्यअहिंसा और साधन की शुद्धता में पूर्ण आस्था होने के कारण ही गांधीजी ने राजनीतिक प्रश्नों के हल के लिए जिस प्राविधि का आश्रय लिया उसे सत्याग्रह’ कहा जाता है। सत्याग्रह’ शब्द का अर्थ है- सत्य के लिए आग्रह करना। अर्थात् सत्य के पक्ष को लेकर अहिंसात्मक साधनों के द्वारा अन्याय और अत्याचार का प्रतिकार करना ही सत्याग्रह है। गांधीजी मानते थे कि जीवन का सर्वोच्च सत्य आध्यात्मिक एकता है। वे सत्याग्रह को प्रेमबल तथा आत्मबल भी कहते थे। गांधीजी का कहना थाकोई भी व्यक्ति जो सत्य पर आरुढ़ रहने और आत्म-बलिदान पर बल देने के सिद्धान्त को हृदयंगम कर लेगावह इस अस्त्र का प्रयोग कर सकता है। उनके अनुसार सच्चे सत्याग्रही में चार गुणों का होना आवश्यक है- सत्यताअनुशासनत्याग एवं अहिंसा।

            गांधीजी ने भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन में सत्याग्रह के अहिंसक प्रतिरोध के विभिन्न रूपों असहयोगसविनय अवज्ञाउपवासधरणा आदि का प्रयोग किया। गांधीजी का सत्याग्रह प्रयोग निष्क्रिय प्रतिरोध नहीं था। यह एक ऐसा नैतिक शस्त्र था जिसमें शारीरिक शक्ति से आत्मशक्ति की श्रेष्ठता थी।

दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी के सत्याग्रह सम्बन्धी प्रयोग

            दक्षिण अफ्रीका और भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन का नेतृत्व करते हुए गांधीजी ने सत्यअहिंसा और प्रेम के आध्यात्मिक एवं नैतिक सिद्धान्तों का राजनीति के क्षेत्र में जिस विशिष्ट पद्धति एवं दृष्टिकोण के साथ प्रयोग कियाइसे समझना आवश्यक है।

            1891 में इंग्लैण्ड से बैरिस्टरी कर स्वदेश आने के बाद 1893 में मोहन दास करमचन्द गांधी (जन्म 2 अक्टूबर1869) को दक्षिण अफ्रीका के एक प्रवासी भारतीय दादा अब्दुल्ला के मुकदमे के सिलसिले में वहाँ जाने का मौका मिला। उन दिनों दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले प्रवासी भारतीय प्रजातीय उत्पीड़न और भेदभाव के शिकार थे। व्यक्तिगत रूप से गांधीजी को भी इसके कटु अनुभव प्राप्त हुये अतः उन्होंने प्रिटोरिया के प्रवासी भारतीयों को श्वेतों की जातीय सम्प्रभुता के विरुद्ध संगठित होने की अपील की। इसके साथ ही गांधीजी के दक्षिण अफ्रीका में संघर्ष का लम्बा इतिहास आरम्भ हुआ।

            संघर्ष के प्रथम चरण (1894-1906) में गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीकी सरकार को अपने पक्ष से सहमत करने के लिए याचिकाओं और प्रार्थना-पत्र की उसी नीति का अवलम्बन किया जो भारत में उदार राष्ट्रवादी अपनाते रहे थे। उन्होंने ब्रिटेन से माँग की कि उसे इस विषय में हस्तक्षेप कर भारतीयों की दशा सुधारने के प्रयत्न करना चाहिए। वे मानते थे कि चूँकि दक्षिण अफ्रीका और भारत ब्रिटिश उपनिवेश है अतः भारतीयों पर हो रहे प्रजातीय भेदभाव एवं उत्पीड़न रोकने का उत्तरदायित्व ब्रिटेन का ही है। गांधीजी ने भारतीयों को संगठित करने के लिए नेटाल भारतीय कांग्रेस’ की स्थापना की।

            संघर्ष के दूसरे चरण (1906 - 1914) में गांधीजी ने अफ्रीका की श्वेत सरकार के विरुद्ध अहिंसात्मक प्रतिरोध या सविनय अवज्ञा की नीति अपनायी और इसे सत्याग्रह’ का नाम दिया। उन्होंने दक्षिण अफ्रीकी सरकार द्वारा भारतीय मूल की जनता के पंजीकरण के लिए जारी किये गये अपमानजनक अध्यादेश के विरुद्ध 1906 में सत्याग्रह कियाप्रवासी भारतीयों के प्रवेश पर रोक के विरुद्ध आन्दोलन किया। 1908 में उन्हें जेल जाना पड़ा। 1909 में उन्होंने सत्याग्रहियों के परिवार की पुर्नवास समस्या के हल के लिए टाल्सटाय फार्म की स्थापना की तथा पोल टैक्स और भारतीय विवाहों को अप्रमाणित करने के विरुद्ध आन्दोलन किया। इस बार सत्याग्रह का स्वरूप बड़ा था। आन्दोलन का दबाव इतना अधिक था कि दक्षिण अफ्रीकी सरकार को सत्याग्रह के समक्ष झुकना पड़ा।

            दक्षिण अफ्रीका में हुये तीन अहिंसक आन्दोलनों में गांधीजी ने सत्याग्रह प्राविधि का उपयोग करते हुये अपनी कथनी-करनी में उच्चतम नैतिक आदर्शों का समन्वय किया। दक्षिण अफ्रीका में प्राप्त अनुभवों के कारण गांधीजी को भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन का नेतृत्व करने में आसानी हुई। दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी ने एक विशिष्ट राजनीतिक शैली नेतृत्व के नये अंदाज और संघर्ष के जिन नये तरीकों या प्रयोगों को विकसित किया उसके कारण उन्हें यह भलीभाँति ज्ञात हो गया कि उनकी अपनी (गांधीवादी) रणनीति एवं संघर्ष के तौर तरीकों के मजबूत पक्ष तथा कमियाँ क्या हैं।

गांधीजी का स्वदेश लौटना: 1915-1920 तक की गतिविधियाँ

            गांधीजी जनवरी 1915 में भारत लौटे। दक्षिण अफ्रीका में उनकी सफलताओं ने उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्रदान की थी। भारत के शिक्षित ही नहीं अपितु जन सामान्य भी उनसे भलीभाँति परिचित हो चुका था। भारत लौटने के बाद अपने राजनीतिक गुरू गोपाल कृष्ण गोखले के परामर्श के बाद उन्होंने अगले एक वर्ष तक देश भर का दौरा किया और समस्याओं की जमीनी हकीकत से परिचय प्राप्त किया। भारत की तत्कालीन राजनीतिक विचारधाराओं से वे असहमत थे। उदारवादी राजनीति में उनकी आस्था दक्षिण अफ्रीका में प्रयोगों के दौर में समाप्त हो चुकी थी। होम रूल आन्दोलन की रणनीति के वे विरोधी थे क्योंकि तिलक और बेसेण्ट मानते थे कि अंग्रेजों के लिए कोई भी मुसीबत उनके लिए अवसर है।

            ब्रिटिश सरकार युद्ध में फँसी हुई थी। गांधीजी ने प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटिश सरकार के युद्ध प्रयासों में पूर्ण मदद इस आशा के साथ की कि युद्ध समाप्ति के पश्चात् ब्रिटिश सरकार भारतीयों को स्वराज्य देगी।

            गांधीजी ने 1916 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह में पहली बार सार्वजनिक रूप से अपनी उपस्थिति दर्ज करायी। इस समारोह में गांधीजी ने आमन्त्रित बुद्धिजीवी वर्ग को चेतावनी दी कि यदि भारतीय जनसंख्या के अधिसंख्य भाग किसानों और कामगारों के कल्याण के लिए प्रबुद्ध वर्ग ने विचार नहीं किया तो स्वशासन का भी कोई अर्थ नहीं रह जायेगा। वे राष्ट्रवादी नेतृत्व को जो व्यावसायिकोंबुद्धिजीवियोंजमींदार वर्ग के हाथ में थाकिसानश्रमिक और कामगार वर्ग के हाथों में देना चाहते थे।

            1916 में गांधीजी ने अहमदाबाद के निकट साबरमती आश्रम की स्थापना की और उसे अपनी राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र बनाया। तत्कालीन परिस्थितियों में वे राष्ट्रवादी लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अहिंसक सत्याग्रह को सर्वोत्तम मार्ग मानते थे। भारत में सत्याग्रह का प्रारम्भिक परीक्षण उन्होंने चम्पारणअहमदाबाद तथा खेड़ा में किया। गांधीजी को इन आन्दोलनों के माध्यम से देश की जनता के निकट आने और उनकी समस्याओं को समझने का अवसर मिला। सत्याग्रह का प्रयोग करते हुये गांधीजी एक विशिष्ट प्रकार के और नियन्त्रित जन आन्दोलनों का ही नेतृत्व करना चाहते थे। वर्ग संघर्ष या सामाजिक क्रान्ति में उनकी कोई रुचि नहीं थी।

            विश्‍व युद्ध समाप्ति के पश्चात् जब भारतीय जनता संवैधानिक सुधारों की प्रतीक्षा कर रही थी ब्रिटिश सरकार ने दमनकारी रौलेट एक्ट जनता के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया। गांधीजी ने इसके विरोध में सत्याग्रह आरम्भ किया। गांधीजी अहिंसक प्रतिरोध चाहते थे परन्तु सरकार की दमन नीति के कारण आन्दोलन ने हिंसक रूप धारण कर लिया। अमृतसरलाहौर तथा पंजाब में अनेक स्थानों पर सरकार ने सेना के माध्यम से स्थिति पर नियन्त्रण का प्रयास किया। गांधीजी को पंजाब आने से रोका गया। 13 अप्रैल1919 को जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड के रूप में सरकार का बर्बर और घिनौना रूप सामने आया। इस घटना ने सहयोगी गांधी को असहयोगी गांधी बना दिया। रौलेट एक्ट के विरूद्ध सत्याग्रह ने गांधीजी को राष्ट्रीय नेता के रूप में स्थापित कर दिया। गांधीजी सम्पूर्ण भारत में कितने लोकप्रिय थे इसका अंदाज इलाहाबाद जिले में 1921 में होने वाले प्रतापगढ़ किसान आन्दोलन से सम्बन्धित गुप्तचर रिपोर्ट से प्रमाणित होता है। इसमें कहा गया है, ‘‘सुदूर गॉवों में भी मि. गांधी के नाम का जैसा प्रचलन हो गया है वह आश्चर्यजनक है। इनमें से कोई ठीक से यह नहीं जानता कि वे कौन हैं या क्या हैंकिन्तु यह तय है कि जो वे कहते हैंवह सत्य माना जाता है और उनके आदेशों का पालन अनिवार्य है। उनके नाम की वास्तविक शक्ति  लोगों के इस विश्वास में है कि प्रतापगढ़ में बेदखली बंद कराने वाले गांधीजी ही थे....।’’ यह स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए कि उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ में बेदखली पर रोक बाबा रामचन्द्र के नेतृत्व में किसानों के संघर्ष का परिणाम था। गांधीजी या कांग्रेसी नेतृत्व का इससे कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं था। परन्तु यदि जमींदार विरोधी इस आन्दोलन का श्रेय भी यदि किसान गांधीजी को दे रहे थेतो इसे उनकी चमत्कारित शक्ति का प्रभाव ही कहा जा सकता है।

गांधीजी और राष्ट्रीय आन्दोलन (1921-1935)

            1921 से 1934 के मध्य गांधीजी ने दो बड़े आन्दोलनों असहयोग आन्दोलन एवं सविनय अवज्ञा आन्दोलन का नेतृत्व किया।

            असहयोग आन्दोलन जब अपने वेग पर था5 फरवरी1922 को गोरखपुर जिले के चैरी-चैरा नामक स्थान पर स्वयंसेवकों द्वारा हिंसक प्रतिरोध हुआ अतः गांधीजी ने तुरन्त आन्दोलन वापस लेने की घोषणा कर दी। गांधीजी ने यंग इण्डिया’ में लिखा कि, ‘‘मैं हर प्रकार का दमनप्रताड़नाहर उत्पीड़न सहन कर सकता हूँयहाँ तक कि अपनी मृत्यु का वरण भी कर सकता हूँलेकिन आन्दोलन हिंसक हो जाये यह बर्दाश्त नहीं कर सकता।’’

            गांधी जी ने अचानक आंदोलन को वापस इसलिए लिया क्योंकि उन्हें आशंका थी कि आन्दोलन के दौरान हुई हिंसक कार्यवाहियों से अहिंसक असहयोग आन्दोलन की पूरी रणनीति विफल हो जायेगी। इस आन्दोलन को वापस लेने की घोषणा से लगभग सभी राष्ट्रवादी नेता स्तब्ध हो गये। जब आन्दोलन अपने चरम बिन्दु पर था आंदोलन वापस लेने की घोषणा का सभी ने विरोध किया। इसमें कोई संदेह नहीं कि गांधीजी के नेतृत्व में हुये इस आन्दोलन ने पहली बार राष्ट्र की जनता को एक सूत्र में आबद्ध कर दिया। गांधीजी को इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने भारतीय राष्ट्रवादी आन्दोलन को व्यावसायिकों और बुद्धिजीवियों के हाथ से निकालकर जन-आन्दोलन बनाने में सफलता प्राप्त की। परन्तु अनेक लोगों ने गांधीजी की रणनीति एवं नेतृत्व पर प्रश्न चिन्ह लगाना भी आरम्भ किए।

            1922 से 1928 के मध्य गांधीजी की रणनीति से असहमत अनेक घटनाएँ हुयीं। अप्रैल 1922 में गांधीजी को बन्दी बना लिया गया। उन्हें छः वर्ष की सजा दी गयी। स्वास्थ्य खराब होने के कारण उन्हें कुछ महीनों के बाद जेल से मुक्त कर दिया गया। इस बीच हिन्दू-मुस्लिम दंगे आरम्भ हो गये। इसकी प्रतिक्रिया में गांधीजी ने 21 दिनों तक अनशन किया। 1923 में स्वराज्य दल की स्थापना हुई। गांधीजी स्वराज्य दल के कार्यक्रमों से पूर्ण सहमत नहीं थेतब भी उन्होंने स्वराज्यवादियों को कौंसिल में प्रवेश की अनुमति दी तथा अन्य कांग्रेसियों का साथ लेकर रचनात्मक कार्यों पर अपना ध्यान केन्द्रित किया। खादी आश्रमों की स्थापना हुई। चरखा लोकप्रिय हुआ। अनेक राष्ट्रीय शिक्षा संस्थाओं की स्थापना हुई। हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए सराहनीय प्रयास किये गये। अस्पृश्यता के विरुद्ध संघर्षशराब एवं विदेशी कपड़ों का बहिष्कार तथा बाढ़ पीड़ितों को सहायता देने जैसे कार्यक्रम चलाये गये।

            गांधीजी के राजनीतिक जीवन के दूसरे चरण की शुरुआत 1928 से हुई। 1928 में नेहरू रिपोर्ट पर कांग्रेस के दो दलों में गहरा मतभेद हो गयाजिसे गांधीजी ने समाप्त किया। लाहौर कांग्रेस अधिवेशन ने कांग्रेस का लक्ष्य पूर्ण स्वराज्य की प्राप्ति घोषित कर राजनीति में नई जान डाल दी। 26 जनवरी1930 को पूरे देश में स्वतन्त्रता दिवस मनाया गया। इसके तुरंत बाद गांधीजी ने ब्रिटिश भारत के सर्वाधिक घृणित कानूनों में से एक जिसने नमक के उत्पादन ओर विक्रय पर राज्य को एकाधिकार दिया थाको तोड़ने के लिए दाण्डी यात्रा (12 मार्च19306 अप्रैल 1930) की। दाण्डी यात्रा का महत्व यह है कि इसके कारण गांधीजी दुनिया की नजर में आये। इस यात्रा के साथ ही सविनय अवज्ञा आन्दोलन आरम्भ हुआ। आन्दोलन के दौरान घटित घटनाओं- प्रथम गोलमेज सम्मेलन (नवम्बर 1930 से)गांधी-इरविन समझौतासविनय अवज्ञा आन्दोलन का स्थगनद्वितीय गोलमेज सम्मेलन (सितम्बर 1931 से)सविनय अवज्ञा आन्दोलन का पुनः आरम्भ होनामैकडोनोल्ड अवार्ड (अगस्त 1932)पूना समझौतातृतीय गोलमेज सम्मेलन (नवम्बर 1932) आदि के कारण सविनय अवज्ञा आन्दोलन में कई बाधाएँ आयीं। गांधीजी ने आन्दोलन की समाप्ति (अप्रैल 1934) के पश्चात् व्यक्तिगत सविनय अवज्ञा को जारी रखा। मई 1934 तक इसे भी बन्द कर दिया गया। आन्दोलन के दौर में गांधीजी पर यह आरोप लगे कि वे दबाव में समझौता कर लेते हैं। ब्रिटिश साम्राज्यवाद के समक्ष समर्पण की इस राजनीति की बड़े राष्ट्रवादी नेताओं ने भी कटु आलोचना की। परन्तु गांधीजी किसी सरकारी दबाव में फैसले नहीं लेते थे। उन्हें जब यह लगता था कि अब आन्दोलन को चलाने का कोई औचित्य नहीं है और इसे जारी रखने से जनता के कष्ट बढ़ेंगे वे आन्दोलन को स्थगित या समाप्त कर देते थे।

            गांधी जी का मूल्यांकन करते समय इस बात को रेखांकित करना आवश्यक है कि उन्होंने साम्प्रदायिक समस्या के हल के लिए 16 अगस्त1932 को ब्रिटिश प्रधानमन्त्री रेम्जे मैकडोनाल्ड द्वारा घोषित साम्प्रदायिक निर्णय (Communal Award) का जमकर विरोध किया। वे इसे राष्ट्रीय एकता और भारतीय राष्ट्रवाद पर प्रहार के रूप में देखते थे। मैकडोनोल्ड निर्णय द्वारा प्रत्येक अल्पसंख्यक समुदाय को पृथक निर्वाचन मण्डल द्वारा अपने प्रतिनिधि को चुनना था अर्थात् मुसलमान केवल मुसलमान को और सिख केवल सिख को ही मत दे सकते थे। दलित वर्ग को भी अल्पसंख्यक मानकर उन्हें हिन्दुओं से अलग करने के प्रयास किये गये थे। गांधीजी मानते थे कि साम्प्रदायिक निर्णय साम्प्रदायिकता को बढ़ाने वाला ही है। गांधीजी का सबसे प्रबल विरोध दलित वर्ग को हिन्दुओं से पृथक करने को लेकर था। उन्होंने सरकार से निर्णय कर पुनर्विचार की माँग की तथा कहा कि दलित वर्ग के प्रतिनिधियों का चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर सामान्य निर्वाचन मण्डल द्वारा करावाया जाना चाहिए। जब सरकार ने कोई सन्तोषजनक उत्तर नहीं दिया गांधीजी ने 20 सितम्बर1932 से आमरण अनशन आरम्भ कर दिया। गांधीजी के जीवन को बचाने के लिए यद्यपि दलितों और सवर्णों के प्रयासों से पूना योजना तैयार हुयी और इसे मन्त्रिमण्डल ने भी स्वीकार कर गांधीजी का उपवास समाप्त करवा दिया परन्तु इससे यह स्पष्ट होता है कि गांधीजी भारतीयों को विभाजित करने के प्रयासों से बहुत आहत थे। उनका यह स्पष्ट मत था कि पृथक निर्वाचक मण्डल का सबसे खतरनाक पहलू यह है कि वह अछूतों के सदैव अछूत बने रहने की बात सुनिश्चित करता था।

            पूना समझौता के पश्चात् गांधीजी ने अपना पूरा ध्यान अस्पृश्यता निवारण अभियान’ में लगाया। यरवदा जेल में रहते हुए ही उन्होंने सितम्बर 1932 में अखिल भारतीय अस्पृश्यता विरोधी लीग’ का गठन किया। जनवरी 1933 में उन्होंने हरिजन’ नामक साप्ताहिक-पत्र का प्रकाशन आरम्भ किया। जेल से रिहाई के बाद वे वर्धा आ गये। 7 नवम्बर1933 से उन्होंने पूरे देश में हरिजन यात्रा’ आरम्भ की। उनकी इस यात्रा का प्रमुख उद्देश्य हर रूप में अस्पृश्यता को समाप्त करना था। अपने इन प्रयासों में गांधीजी को सामाजिक प्रतिक्रियाओं तथा कट्टरपंथियों के विरोध का सामना करना पड़ा परन्तु छुआछूत को जड़ से समाप्त करने के प्रयासों में वे लगे रहे।

            गांधीजी की सविनय अवज्ञा आन्दोलन की समाप्ति को लेकर बड़ी आलोचना हुयी थी। गांधीजी ने स्पष्ट रूप से कहा था, ‘‘सविनय अवज्ञा आन्दोलन को वापस लेना आवश्यक एवं तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों में उचित कदम थालेकिन इसका तात्पर्य राजनीतिक अवसरवादिता के सम्मुख समर्पण या साम्राज्यवाद से समझौता नहीं है। मई 1934 में गांधीजी ने महसूस किया कि कांग्रेस में उभर रही सबसे सशक्त धारा से वह कट से गये हैं। वे मौलिक तौर पर संसदीय राजनीति के विरोधी थे जबकि बुद्धिजीवी वर्ग का बड़ा तबका संसदीय राजनीति के पक्ष में था। बुद्धिजीवी वर्ग का एक खेमा गांधीजी के रचनात्मक कार्योंयथा-चरखा कातने आदि से असहमत था। नेहरू के नेतृत्व में स्थापित समाजवादी गुट भी गांधीजी की नीतियों से असहमत था। इसी कारण 1934 में गांधीजी ने कांग्रेस से त्यागपत्र दे दिया। उन्होंने कहा, ‘‘वे कांग्रेस एवं उसमें उभरती नयी विचारधारा पर नैतिक दबाव डालकर उसे रोकना नहीं चाहते क्योंकि यह मेरे अहिंसा के सिद्धान्त के विपरीत है।’’ गांधीजी का कांग्रेस के प्रति मोह भंग लम्बे समय तक नहीं रहा।

            1935 के भारत शासन अधिनियम के अन्तर्गत सरकार ने 1937 के आरम्भ में प्रान्तीय विधान सभाओं के चुनावों की घोषणा की। गांधीजी ने आरम्भ में सत्ता में भागीदारी का विरोध किया परन्तु जल्दी ही वे इस मुद्दे पर सहमत हो गये। चुनावों में कांग्रेस को बड़ी सफलता मिली परन्तु गांधीजी की कांग्रेसियों को यह सलाह थी कि वे सरकार में सम्मिलित होने के मुद्दे को सहजता से लेंगम्भीरता से नहीं। उनके सुझाव पर ही प्रान्तों के गवर्नरों ने कांग्रेस को यह आश्वासन दिया कि वे कांग्रेसी मन्त्रिमण्डलों के दैनिक कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे।

द्वितीय विश्वयुद्ध काल में गांधीजी और राष्ट्रीय आन्दोलनः-

            सितम्बर 1939 में द्वितीय विश्व  युद्ध आरम्भ हो गया। कांग्रेस कार्यसमिति की वर्धा में आयोजित बैठक में भारत द्वारा ब्रिटेन को युद्ध में समर्थन देने के मुद्दे पर विचारों में भिन्नता थी। सुभाष चन्द्र बोस और समाजवादी इस युद्ध को साम्राज्यवादी मानते थे तथा चाहते थे कि कांग्रेस इस स्थिति का लाभ उठाकर तुरंत सविनय अवज्ञा आन्दोलन आरम्भ करे परन्तु गांधीजी की सहानुभूति मित्र राष्ट्रों के प्रति थी। वे पश्चिमी यूरोप के लोकतान्त्रिक राज्यों और फासीवादी राज्यों के युद्ध उद्देश्यों में अन्तर देखते थे। कांग्रेस कार्यसमिति गांधीजी के विचारों से सहमत नहीं थी तथा ब्रिटिश सरकार की ओर से स्पष्ट वचन चाहती थी। ब्रिटिश सरकार की ओर से वायसराय ने जो आश्वासन दिया इसमें औपनिवेशिक स्वराज्य की बात कही गयी जबकि कांग्रेस और गांधीजी की माँग पूर्ण स्वाधीनता की थी। कांग्रेस यह समझ गयी कि सरकार टालमटोल कर रही थीं। परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस ने निन्दा का प्रस्ताव पारित किया तथा कांग्रेसी मन्त्रियों ने प्रान्तीय सरकारों से त्यागपत्र दे दिया।

            1940 में गांधीजी के नेतृत्व में कांग्रेस ने व्यक्तिगत सत्याग्रह चलाया। ब्रिटिश सरकार युद्धरत थी और भारतीय जनमानस को संतुष्ट करना चाहती थी अतः सरकार ने राजनीतिक गतिरोध को दूर करने के लिए सर स्टैफर्ड क्रिप्स को भारत भेजा। क्रिप्स के प्रस्तावों से कोई सहमत नहीं हुआ। गांधीजी ने क्रिप्स प्रस्तावों पर कड़ी टिप्पणी की। गांधीजी तथा अन्य नेता फासिस्ट विरोधी युद्ध को कमजोर करना नहीं चाहते थे परन्तु इस अवसर पर अधिक समय तक चुप भी रहना नहीं चाहते थे। गांधीजी का विचार था कि भारत से ब्रिटिश साम्राज्य का तुरन्त समाप्त होना आवश्यक है। 24 मई1942 को उन्होंने लिखा, ‘‘अंग्रेजों तुम चले जाओ। भारत को ईश्वर के हाथों में छोड़ जाओ।’’ इसी भावना के साथ कांग्रेस ने 7-8 अगस्त 1942 को भारत छोड़ो’ का ऐतिहासिक प्रस्ताव किया तथा गांधीजी के नेतृत्व में बहुत बड़े और अन्तिम अहिंसात्मक जन आन्दोलन की शुरुआत हुयी। इस ऐतिहासिक प्रस्ताव में गांधीजी ने माँग की कि, ‘‘भारत में अंग्रेजी राज्य तुरन्त समाप्त हो जाना आवश्यक है और ..... यह केवल भारत के हित में नहीं अपितु इससे विश्व की सुरक्षा होगी और विश्व में नात्सी भावनाउग्रराष्ट्रवादसैनिकवाद तथा अन्य प्रकार के साम्राज्यवाद और अन्य देशों का दूसरे देशों पर अधिकार समाप्त होने में सहायता मिलेगी।’’ आन्दोलन आरम्भ करने के पूर्व गांधीजी ने सारे राष्ट्र को करो या मरो’ का सन्देश दिया। इस आन्दोलन को किसानोंमजदूरोंयुवाओंमहिलाओं ने बड़ा समर्थन दिया। देशव्यापी आन्दोलन में कहीं-कहीं हिंसा भी हुई। इस बार गांधीजी ने हिंसा की निन्दा करने के स्थान पर सरकार की उत्तेजक कार्यवाहियों को ही उत्तरदायी ठहराया। 9 अगस्त 1942 को ही गांधीजी बन्दी बना लिये गये थे परन्तु आन्दोलन ने शीघ्र ही जन-विद्रोह का रूप ले लिया। इस आन्दोलन ने ब्रिटिश साम्राज्य की इमारत में दरारें पैदा कर दी। आन्दोलन की व्यापकता और तीक्ष्णता से ब्रिटिश सरकार यह अच्छी तरह समझ गयी कि राष्ट्रवादी माँगों की अधिक समय तक उपेक्षा नहीं की जा सकती। 1942 के आन्दोलन का सरकार ने क्रूरतापूर्वक दमन अवश्य कर दिया परन्तु ब्रिटिश नौकरशाही का मनोबल टूटने लगा। ब्रिटिश सरकार परिवर्तित परिस्थितियों में सत्ता के हस्तान्तरण के लिए मानसिक रूप से तैयार होने लगी। कारागार में रहते हुये गांधीजी ने सरकार से आन्दोलन के दौरान हुई घटनाओं की निष्पक्ष जाँच की माँग की। सरकार चाहती थी कि गांधीजी आन्दोलन समाप्त होने की घोषणा करे परन्तु गांधीजी ने मना कर दिया। 10 फरवरी 1944 से उन्होंने 21 दिनों का उपवास आत्मशुद्धि की दृष्टि से आरम्भ किया और प्रतिकूल परिस्थितियों में भी पूर्ण किया। सरकार अनुभव करती थी कि आन्दोलन को हिंसा से दूर रखने के लिए गांधीजी को कारागर से मुक्त कर देना उचित है। अतः 9 मई 1944 को गांधीजी को छोड़ दिया गया। जेल से बाहर आकर गांधीजी ने राजगोपालाचारी की योजना (Rajaji Formula) पर जिन्ना से बात की परन्तु इसका कोई परिणाम नहीं निकला।

            द्वितीय विश्‍व युद्ध के अंतिम चरण तक आते-आते ब्रिटिश अधिकारी और नीति निर्माताओं के दृष्टिकोण में परिवर्तन स्पष्ट दिखायी देने लगा था। वॉवेल योजना में इसके संकेत विद्यमान थे। जून 1945 के शिमला सम्मेलन के सम्मुख सबसे बड़ी बाधा जो भारत की संवैधानिक प्रगति में थीवह थी साम्प्रदायिक समस्या का मुखर होना। साम्प्रदायिकता के प्रश्‍न  ने ही शिमला सम्मेलन के प्रयासों को बिखरा दिया। इन्हीं परिस्थितियों में जुलाई 1945 में ब्रिटेन में मजदूर दल सत्ता में आया। इस दल की सरकार भारत की समस्या का समाधान के प्रति गम्भीर थी। यह गम्भीरता मुखर होती तब दिखायी दी जब भारत सचिव ने कैबिनेट मिशन भारत भेजने की घोषणा की। गांधीजी को मिशन से बड़ी आशाएँ थीं। उन्होंने कहा था, ‘‘शासकों ने भारत छोड़ने और भारतीय शासन स्थापित करने का अपना इरादा घोषित कर दिया है.... ब्रिटेन की घोषणाओं में अविश्‍वास करनाअपनी ओर से कुछ और मानकर कलह शुरू कर देना निश्चित रूप से अदूरदर्शिता का परिचय देना होगा। क्या यह सरकारी शिष्ट मण्डल एक महान राष्ट्र के साथ छल करने के लिए आ रहा है। इंतजार करने में हर्ज क्या हैं?

            कैबिनेट मिशन ने भारत के भावी स्वरूप को निश्चित करने वाली जो योजना 16 मई1946 को प्रस्तुत की गांधीजी के अनुसारयह योजना ‘‘तत्कालीन परिस्थितियों में ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रस्तुत एक सर्वोत्तम प्रलेख था।’’ परन्तु मिशन योजना की सफलता के लिए यह आवश्यक था कि कांग्रेस और लीग दोनों उसे सफल बनाने के लिए सहमत हों। लीग के साम्प्रदायिक दृष्टिकोण को गांधीजी न तो नरम बना सके और न ही वे मुसलमानों के नेता के रूप में जिन्ना को महत्वपूर्ण बनने से रोक सके। लीग की पाकिस्तान की माँग और उस पर डटे रहने के जिन्ना के निश्चय के कारण पूरा देश साम्प्रदायिक हिंसा की चपेट में आ गया। मुस्लिम लीग की सीधी कार्यवाही’ ने यह स्पष्ट कर दिया था कि देश का विभाजन होकर रहेगा। लार्ड एटली की 20 फरवरी1947 की घोषणा के बाद लार्ड माउण्टबेटन भारत के गवर्नर जनरल बनकर आये। उन्हें एटली की घोषणा के अनुसार जून 1948 तक भारत की सत्ता जिम्मेदार भारतीयों को सौंपना थी। उन्हें कांग्रेस और लीग से बात कर भारत के भविष्य पर निर्णय लेना था। जब यह स्पष्ट नजर आने लगा था कि विभाजन सुनिश्चित है गांधीजी अभी भी आशा लिए बैठे थे। 31 मार्च1947 को उन्होंने माउण्टबेटन से अपनी पहली मुलाकात में ही यह सुझाव दिया कि यदि जिन्ना सन्तुष्ट हो सकते हों तो अंतरिम सरकार पूर्ण रूप से लीग के नेता जिन्ना के हाथों सौंप दी जाए। गांधीजी भारत में साम्प्रदायिक दंगों को रोकने के लिए बड़े से बड़ा त्याग करने को तैयार थे। परन्तु इस सुझाव को न तो कांग्रेस कार्यसमिति ने स्वीकार किया और न ही जिन्ना इस पर सहमत हुये। वास्तविकता यह थी कि 1945 के बाद से ही जबसे सत्ता हस्तान्तरण की बातचीत आरम्भ हुईपं. नेहरू और अन्य कांग्रेसियों ने अपनी योजनानुसार अंग्रेजों से बातचीत की। कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व यदाकदा गांधीजी के पास परामर्श लेने जाता रहता था परन्तु उसका कोई मतलब नहीं था क्योंकि गांधीजी के सामाजिक और आर्थिक विचारों से वे सहमत नहीं थे और देश के पुनर्निमाण की उनकी अपनी योजनाएँ थीं। सम्भवतः गांधीजी भी इस तथ्य से परिचित थे कि उनके विचार इतने आदर्शवादी थे कि उनका पालन सम्भव नहीं था। माउण्टबेटन देश के विभिन्न राजनीतिक दलों और नेताओं से परामर्श के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि भारतीय समस्या का एकमात्र समाधान देश का विभाजन और पाकिस्तान की स्थापना करना है। नेहरू-पटेल को तो माउण्टबेटन ने समझा-बुझा कर बँटवारे के पक्ष में कर लिया परन्तु गांधीजी विभाजन के लिए तैयार नहीं थे। उन्होंने मौलाना अबुल कलाम आजाद से कहा कि, ‘‘यदि कांग्रेस बँटवारा मंजूर करेगी तो उसे मेरी लाश के ऊपर करना होगा। जब तक मैं जिंदा हूँ भारत के बँटवारे के लिए कभी राजी न होऊँगाऔर अगर मेरा वश चला तो कांग्रेस को भी इसे मंजूर करने की इजाजत नहीं दूंगा।’’ परन्तु कुछ ही दिनों में गांधीजी के विचार बदल गये। देश की एकता को बचाये रखने के लिए जिन्ना के समक्ष समर्पण की मुद्रा भी जब काम नहीं आयीवे भी इस निष्कर्ष पर पहुँच गये कि परिस्थितियाँ ऐसी हो गयी हैं जिनमें बँटवारा अवश्यम्भावी है। राजमोहन गांधी ने लिखा है, ‘‘जब स्वतन्त्रता और विभाजन की बेला आयी तो स्वतन्त्रता की लड़ाई वाला बुजुर्ग महज एक अकेले की सेना बनकर रह गया था।’’

            3 जून1947 को लार्ड माउण्टबेटन ने भारत विभाजन की योजना प्रकाशित की। 14 जून1947 को कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में देश के विभाजन के फैसले को स्वीकार करने का प्रस्ताव प्रस्तुत हुआ। पटेलनेहरू प्रस्ताव के समर्थन में थेफिर भी प्रस्ताव का पास होना मुश्किल था। ऐसी स्थिति में गांधीजी को हस्तक्षेप करना पड़ा। कार्यसमिति ने तो प्रस्ताव पारित कर दिया परन्तु अखिल भारतीय कांग्रेस समिति से इसे सर्वसम्मति प्राप्त नहीं हुई।

            माउण्टबेटन योजना को स्वीकार करने के पश्चात् 4 जुलाई1947 को ब्रिटिश संसद में भारतीय स्वाधीनता विधेयक’ प्रस्तुत हुआ। 18 जुलाई1947 को यह अधिनियम के रूप में पारित हुआ। इसके द्वारा 15 अगस्त1947 को भारत को विभाजित कर दो अधिराज्यों भारत और पाकिस्तान की स्थापना हुई।

            मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने गांधीजी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का मूल्यांकन करते हुये लिखा, ‘‘अगर मानवता को आगे बढाना है तो गांधी ही रास्ता है। उन्होंने मानवता के उन विचारों को जिया जिससे विश्‍व में शान्ति और समरसता हो। हम जोखिम उठाकर ही उनकी उपेक्षा कर सकते हैं।’’

            गांधीजी की हत्या के तुरंत बाद देश में व्याप्त शोक का चित्रण करते हुए कविवर रविन्द्रनाथ ठाकुर ने महामृत्युंजय’ शीर्षक से कविता लिखी थीजिसकी एक पक्ति ही उनका समग्र मूल्यांकन सा है। वे लिखते हैं, ‘‘वही रास्ता बतायेगा हमने जिसकी हत्या की है।’’

            गांधीजी की स्मृति में एक प्रस्ताव भारतीय संसद ने 24 दिसम्बर1969 को पारित किया। इसमें कहा गया कि, ‘‘यह सदन महात्मा गांधी की शताब्दी के वर्ष के अवसर पर अपनी आदरपूर्ण श्रद्धांजलि राष्ट्रपिता के प्रति अर्पित करता है जिन्होंने जनता में एक नवीन स्फूर्ति फूंक दीजिन्होंने करोड़ों पीड़ित और पददलित लोगों को ऊपर उठायाजिन्होंने लोगों में समर्पण और सेवा की भावना जगायी तथा अपनी अनन्त कृतज्ञता को उस अहिंसा की मूर्ति के प्रति अभिलिखित रूप से प्रकट करता है जिन्होंने शक्तिन्यायबराबरी के लिए धर्म युद्ध लड़ा और जिन्होंने इस कलहपूर्ण संसार को विश्व  भातृत्व और मानववाद का संदेश दिया और आज हम अपने आपको अहिंसासत्य और राष्ट्र सेवा के उन ऊँचे आदर्शों के लिए जिनके लिए महात्मा जीवित रहे और अपने आप को बलिदान कर दिया- उन आदर्शों का पुनः स्मरण करते है।’’

            गांधीजी से किसी ने पूछा था कि हमारे लिएइस विश्व के लिए आपका क्या संदेश है। उन्होंने उत्तर में कहा था, ‘‘मेरा जीवन ही मेरा संदेश है।’’ वास्तव में उनका जीवन ही नहींमरना भी एक बड़ा संदेश देकर गया।

यह आर्टिकल आधुनिक भारत के इतिहास पर आधारित " उपनिवेशवाद से अभ्युदय तक " किताब का एक अंश है , जिसे  शिक्षाविद Anuj Garg और प्रोफेसर A.C. Dahibhate  के द्वारा लिखा गया है ! यह किताब नीचे दिए गए लिंक पर उपलब्ध है !

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  5. sir aap god of history ho .bas issche jyada keche apki tarif karu ..jay hind jay bharat ..

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